ख़ूब ताज़ीर-ए-गुनाह-ए-इश्क़ है
नक़्द-ए-जाँ लेना यहाँ जुर्माना है
Allama Iqbal
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वहाँ पहुँच नहीं सकतीं तुम्हारी ज़ुल्फ़ें भी
ऐसी हुई सरसब्ज़-शिकायत की कड़ी बात
भटके फिरे दो अमला-ए-दैर-ओ-हरम में हम
ज़ाहिदो पूजा तुम्हारी ख़ूब होगी हश्र में
तेरी फ़ुर्क़त में शराब-ए-ऐश का तोड़ा हुआ
कुफ्र-ओ-इस्लाम ने मक़्सद को पहुँचने न दिया
बे-इल्म शाइरों का गिला क्या है ऐ 'मुनीर'
जब हम-बग़ल वो सर्व क़बा पोश हो गया
सदमे से बाल शीशा-ए-गर्दूँ में पड़ गया
जब कभी मस्की कटोरी क्या सदा पैदा हुई
करता रहा लुग़ात की तहक़ीक़ उम्र भर
विर्द-ए-इस्म-ए-ज़ात खोला चाहता है ये गिरह