आस्तीन-ए-सब्र से बाहर न निकलेगा अगर
होगी दस्त-ए-ग़ैब की सूरत हमारे हाथ में
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दस बीस हर महीने में अबरू नज़र पड़े
हो गया मामूर आलम जब किया दरबार-ए-आम
आख़िर को राह-ए-इश्क़ में हम सर के बल गए
जुदाई के सदमों को टाले हुए हैं
फोड़े ने सफ़र में सख़्त घबराया है
बोसे हैं बे-हिसाब हर दिन के
होती है हार जीत पिन्हाँ बात बात में
शर्म कब तक ऐ परी ला हाथ कर इक़रार-ए-वस्ल
दश्त-ए-वहशत में नहीं मिलता है साया काँपता
आते नहीं हैं दीदा-गिर्यां के सामने
गर्मी में तेरे कूचा-नशीनों के वास्ते