हर्फ़ सादा-ओ-रंगीं
इक कली गुलाब की
कूचा-ए-चमन में है
याद एक ख़्वाब की
शाम के गगन में है
इस्म सब्ज़ बाब का
पुर-फ़रेब बन में है
नक़्श इक शबाब का
साया-ए-कुहन में है
इक पुकारती सदा
जब्र के गहन में है
दूर दूर तक हवा
कोह और दमन में है
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