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दुश्मन की तरफ़ दोस्ती का हाथ - मुनीर नियाज़ी कविता - Darsaal

दुश्मन की तरफ़ दोस्ती का हाथ

मेरे जिस्म में ज़हर है तेरा

मेरा दिल है तेरा घर

तू मौजूद है साथ हमेशा

ख़ौफ़ सा बन कर शाम-ओ-सहर

तेरा असर है मेरे लहू पर

जैसे चाँद समुंदर पर

इतनी ज़र्द है रंगत तेरी

जम जाती है उस पे नज़र

तू है सज़ा मिरे होने की

या है मेरा ज़ाद-ए-सफ़र

करेगा तू बीमार मुझे या

बनेगा ना-मालूम का डर

रहेगा दाइम गहरी तह में

जैसे अँधेरे में कोई दर

गुम कर देगा राह में मुझ को

या देगा मंज़िल की ख़बर

तू है मेरा दोस्त कि दुश्मन

ये तो बता मुझ को ऐ ज़र

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