मुद्दत के ब'अद आज उसे देख कर 'मुनीर'
इक बार दिल तो धड़का मगर फिर सँभल गया
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शब-ख़ूँ
अब किसी में अगले वक़्तों की वफ़ा बाक़ी नहीं
सुन बस्तियों का हाल जो हद से गुज़र गईं
सारे मंज़र एक जैसे सारी बातें एक सी
कटी है जिस के ख़यालों में उम्र अपनी 'मुनीर'
आमद-ए-शब
जब सफ़र से लौट कर आए तो कितना दुख हुआ
जुर्म आदम ने किया और नस्ल-ए-आदम को सज़ा
निगार-ख़ाना
मिलती नहीं पनाह हमें जिस ज़मीन पर
वक़्त से कहियो ज़रा कम कम चले