मैं बहुत कमज़ोर था इस मुल्क में हिजरत के बाद
पर मुझे इस मुल्क में कमज़ोर-तर उस ने किया
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थके लोगों को मजबूरी में चलते देख लेता हूँ
इशारे
इक और दरिया का सामना था 'मुनीर' मुझ को
बेगानगी का अब्र-ए-गिराँ-बार खुल गया
अच्छी मिसाल बनतीं ज़ाहिर अगर वो होतीं
ग़ैर से नफ़रत जो पा ली ख़र्च ख़ुद पर हो गई
दिल का सफ़र बस एक ही मंज़िल पे बस नहीं
ख़याल-ए-यकता में ख़्वाब इतने
किसी अकेली शाम की चुप में
सपेरा
बहुत ही सुस्त था मंज़र लहू के रंग लाने का
दूरी