कोई तो है 'मुनीर' जिसे फ़िक्र है मिरी
ये जान कर अजीब सी हैरत हुई मुझे
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मेरी सारी ज़िंदगी को बे-समर उस ने किया
साए
पहली बात ही आख़िरी थी
गली के बाहर तमाम मंज़र बदल गए थे
मिसाल-ए-संग खड़ा है उसी हसीं की तरह
हुस्न में गुनाह की ख़्वाहिश
उस हुस्न का शेवा है जब इश्क़ नज़र आए
तेज़ थी इतनी कि सारा शहर सूना कर गई
तुझ से बिछड़ कर क्या हूँ मैं अब बाहर आ कर देख
आई है अब याद क्या रात इक बीते साल की
रंज-ए-फ़िराक़-ए-यार में रुस्वा नहीं हुआ
वक़्त किस तेज़ी से गुज़रा रोज़-मर्रा में 'मुनीर'