देखे हुए से लगते हैं रस्ते मकाँ मकीं
जिस शहर में भटक के जिधर जाए आदमी
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इक तेज़ तीर था कि लगा और निकल गया
एक मैं और इतने लाखों सिलसिलों के सामने
दिल अजब मुश्किल में है अब अस्ल रस्ते की तरफ़
इशारे
है उस गुल-रंग का दीवार होना
ज़वाल-ए-अस्र है कूफ़े में और गदागर हैं
जिन के होने से हम भी हैं ऐ दिल
ख़याल-ए-यकता में ख़्वाब इतने
मेरी सारी ज़िंदगी को बे-समर उस ने किया
इक आलम-ए-हिज्राँ ही अब हम को पसंद आया
अब मैं उसे याद बना देना चाहता हूँ
शहर में वो मो'तबर मेरी गवाही से हुआ