आवाज़ दे के देख लो शायद वो मिल ही जाए
वर्ना ये उम्र भर का सफ़र राएगाँ तो है
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है 'मुनीर' तेरी निगाह में
सपना आगे जाता कैसे
अपने घर को वापस जाओ रो रो कर समझाता है
मिरे पास ऐसा तिलिस्म है जो कई ज़मानों का इस्म है
क्यूँ 'मुनीर' अपनी तबाही का ये कैसा शिकवा
हुस्न में गुनाह की ख़्वाहिश
रात की अज़िय्यत
हूँ मकाँ में बंद जैसे इम्तिहाँ में आदमी
महक अजब सी हो गई पड़े पड़े संदूक़ में
किसी अकेली शाम की चुप में
विसाल की ख़्वाहिश
इस शहर के यहीं कहीं होने का रंग है