आँखों में उड़ रही है लुटी महफ़िलों की धूल
इबरत-सरा-ए-दहर है और हम हैं दोस्तो
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पूछते हैं कि क्या हुआ दिल को
मैं और शहर
शहर का तब्दील होना शाद रहना और उदास
मैं हूँ भी और नहीं भी अजीब बात है ये
इस शहर-ए-संग-दिल को जला देना चाहिए
ग़म की बारिश ने भी तेरे नक़्श को धोया नहीं
शाम के मस्कन में वीराँ मय-कदे का दर खुला
ग़ैरों से मिल के ही सही बे-बाक तो हुआ
आई है अब याद क्या रात इक बीते साल की
चमक ज़र की उसे आख़िर मकान-ए-ख़ाक में लाई
कितने यार हैं फिर भी 'मुनीर' इस आबादी में अकेला है
तू