मेरे दुश्मन की मौत
तेग़ लहू में डूबी थी और पेड़ ख़ुशी से झूमा था
बाद-ए-बहारी चली झूम के जब उस ने मुझ को देखा था
घायल नज़रें उस दुश्मन की ऐसे मुझ को तकती थीं
जैसे अनहोनी कोई देखी उन कमज़ोर निगाहों ने
ये इंसाफ़ तो बाद में होगा क्या सच्चा क्या झूटा है
कौन यक़ीन से कह सकता है कौन बुरा कौन अच्छा है
लेकिन फिर भी एक बार तो मेरा दिल भी काँपा था
काश ये सब कुछ कभी न होता मैं ने दुख से सोचा था
घायल नज़रें उस दुश्मन की गहरी सोच में खोई थीं
जैसे अनहोनी कोई देखी उन कमज़ोर निगाहों ने
कौन हूँ मैं और कौन था वो जिस पर होनी ने वार किया
कौन था वो जिस शख़्स को मैं ने भरी बहार में मार दिया
(411) Peoples Rate This