आमद-ए-शब
दिए अभी नहीं जले
दरख़्त बढ़ती तीरगी में छुप चले
परिंद क़ाफ़िलों में ढल के उड़ चले
हवा हज़ार मर्ग-ए-आरज़ू का एक ग़म लिए
चली पहाड़ियों की सम्त रुख़ किए
खुले समुंदरों पे कश्तियों के बादबाँ खुले
सवाद-ए-शहर के खंडर
गए दिनों की ख़ुशबुओं से भर गए
अकेली ख़्वाब-गाह में
किसी हसीं-निगाह में
अलम में लिपटी चाहतें वरूद-ए-शब से जाग उठीं
है दिल को बेकली सियाह रात आएगी
जिलौ में दुख की लाग को लिए हुए
नगर नगर पे छाएगी
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