शहर पर्बत बहर-ओ-बर को छोड़ता जाता हूँ मैं
शहर पर्बत बहर-ओ-बर को छोड़ता जाता हूँ मैं
इक तमाशा हो रहा है देखता जाता हूँ मैं
होश उड़ता जा रहा है गर्मी-ए-रफ़्तार में
देखता जाता हूँ मैं और भूलता जाता हूँ मैं
अब्र है अफ़्लाक पर और इक सरासीमा क़मर
एक दश्त-ए-राएगाँ में दौड़ता जाता हूँ मैं
हूँ मकाँ में बंद जैसे इम्तिहाँ में आदमी
सख़्ती-ए-दीवार-ओ-दर है झेलता जाता हूँ मैं
नम है मेरे शे'र से उस चश्म-ए-संग-आलूद में
ख़्वाब हूँ उस चश्म-ए-तर में फैलता जाता हूँ मैं
शौक़ हैं कुछ जिन के पीछे चल रहा हूँ मैं 'मुनीर'
रंज हैं कुछ दिल में मेरे खींचता जाता हूँ मैं
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