Ghazals of Muneer Niyazi
नाम | मुनीर नियाज़ी |
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अंग्रेज़ी नाम | Muneer Niyazi |
जन्म की तारीख | 1923 |
मौत की तिथि | 2006 |
जन्म स्थान | Lahore |
ज़ोर पैदा जिस्म ओ जाँ की ना-तवानी से हुआ
ज़िंदा रहें तो क्या है जो मर जाएँ हम तो क्या
ये कैसा नश्शा है मैं किस अजब ख़ुमार में हूँ
ये आँख क्यूँ है ये हाथ क्या है
वो जो मेरे पास से हो कर किसी के घर गया
वक़्त से कहियो ज़रा कम कम चले
उस सम्त मुझ को यार ने जाने नहीं दिया
उस का नक़्शा एक बे-तरतीब अफ़्साने का था
उन से नयन मिला के देखो
उगा सब्ज़ा दर-ओ-दीवार पर आहिस्ता आहिस्ता
तुझ से बिछड़ कर क्या हूँ मैं अब बाहर आ कर देख
थी जिस की जुस्तुजू वो हक़ीक़त नहीं मिली
थके लोगों को मजबूरी में चलते देख लेता हूँ
थकन से राह में चलना मुहाल भी है मुझे
सुन बस्तियों का हाल जो हद से गुज़र गईं
शाम के मस्कन में वीराँ मय-कदे का दर खुला
शहर पर्बत बहर-ओ-बर को छोड़ता जाता हूँ मैं
शब-ए-विसाल में दूरी का ख़्वाब क्यूँ आया
शब-ए-माहताब ने शह-नशीं पे अजीब गुल सा खिला दिया
सारे मंज़र एक जैसे सारी बातें एक सी
सहन को चमका गई बेलों को गीला कर गई
सफ़र में है जो अज़ल से ये वो बला ही न हो
साए घटते जाते हैं
साअत-ए-हिज्राँ है अब कैसे जहानों में रहूँ
रिदा उस चमन की उड़ा ले गई
रौशनी दर रौशनी है उस तरफ़
रंज-ए-फ़िराक़-ए-यार में रुस्वा नहीं हुआ
रंगों की वहशतों का तमाशा थी बाम-ए-शाम
रहता है इक हर उस सा क़दमों के साथ साथ
रात इतनी जा चुकी है और सोना है अभी