डूबता दर्द का सूरज तिरे इज़हार में था
डूबता दर्द का सूरज तिरे इज़हार में था
ढूँडने वाला तुझे ज़ात के अम्बार में था
आज तन्हा हूँ मैं इख़्लास के उस जंगल में
ऐसे आहू की तरह हो कि कभी डार में था
तेशा-ए-याद में अब खोद रहा हूँ उस को
जो कभी दफ़न मिरे ज़ेहन की दीवार में था
दोपहर उम्र की साए में मिरी जिस के ढली
वो घना पेड़ भी इस शहर के अश्जार में था
यूँ तो सब लोग थे इस शोर शराबे में मगन
कोई अपना न मगर इस भरे बाज़ार में था
आज तुम साहब-ए-इज़्ज़त हो तो इंकार नहीं
नाम मेरा भी कभी सुर्ख़ी-ए-अख़बार में था
सोचता हूँ तो लरज़ उठता है एहसास-ए-अना
दायरा बन के भी मैं वक़्त की पुरकार में था
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