लफ़्ज़ की तह से ये मफ़्हूम तलक जाती है
लफ़्ज़ की तह से ये मफ़्हूम तलक जाती है
फ़िक्र की आग है तहरीर का दम खाती है
कुछ न कहते हुए रखता है असर कहने का
इन हवाओं का लब-ओ-लहजा तिलस्माती है
मुझ को लाई है कई बार तिरे कूचे तक
ख़्वाब-ज़ारों से जो इक राह गुज़र जाती है
ख़ुद को आईना बना रक्खा है जब से में ने
ज़िंदगी सामने आते हुए शरमाती है
रंग लाई मिरी आँखों की जलन ऐ 'जामी'
कूचा-ए-शब से उजालों की हवा आती है
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