निगार-ख़ाना
आँखें एक निगार-ख़ाना
जहाँ अन-गिनत चेहरे ख़ुद को नक़्श कर के
ज़ीस्त के सफ़र पर निकलते हैं
और आँखें उन में वफ़ा के रंग भरती हैं
अचानक
जज़्बों के मौसम बदलते हैं
और बे-ए'तिबारी की गर्द से अटे चेहरे
जब लौटते हैं
तो पहचाने नहीं जाते
आँखें सब को उन की अलामतें बताती हैं
मगर चेहरे इंकार की धुँद में छप जाते हैं
और पादाश में दुखों के कितने ही क़ाफ़िले
आँखों के साहिल पर पड़ाव डाल लेते हैं
जहाँ से पानियों के ऐसे सिलसिले फूट निकलते हैं
कि आँखों में नक़्श सभी चेहरे धुल जाते हैं
और सन्नाटे तैरने लगते हैं
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