मंज़र से बिछड़ने का कर्ब
हम अपने मंज़र से बिछड़े
आँखों में उस का अक्स लिए भटक रहे हैं
कोई नई रुत हमें पनाह देने लगती है
तो अचानक...
बे-दुआ लम्हों को कुछ नया सूझता है
और सारा मंज़र बदल जाता है
जहाँ पुर-असरार आहटें
हमें ख़ौफ़ के जंगल में छोड़ आती हैं
बे-मंज़री रोज़ हम से शिकवा करती है
सुब्ह जागते हैं
तो हमारे चेहरों पर शाम होने लगती है
अज्नबिय्यत की धुँद हमारा साया छीन चुकी है
हमारी अपनी ज़ात में फ़ासले इतने गहरे हो गए
कि हम ख़ुद अपनी ही दस्तरस से बाहर हो चुके
हम इस मंज़र में नहीं दफ़नाए जा सकते
जिस में हम ने जनम लिया था
हम एक मुद्दत से
आँखों की गठड़ी में अपने ख़्वाब बाँधे
वक़्त की दहलीज़ पर खड़े चीख़ रहे हैं
लेकिन हमारी आवाज़ किसी और मंज़र में रह गई है
बे-सौत पुकार पर आसमान अश्क-बार होता है
तो हमारी फ़सलों में भूक चुपके से घुस जाती है
दश्त ने हमारे शादाब जिस्मों से पानी निचोड़ कर
उन में प्यास भर दी है
इदराक की सरहदों के उस पार
अपने गुम-शुदा मंज़र को हम ने कभी नहीं खोजा
हमें ख़बर है...
हम सब ने मिल कर अपना मंज़र ख़ुद गँवाया है
और अब हम...
अपने क़हत-ज़दा बदन में छुप कर बैठ गए हैं
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