नक़ली फूल
मैं ने जब पहले-पहल देखा था
ये मुझे कितने भले लगते थे
तुम ने गुल-दान में रक्खा था इन्हें
थी मिरे कमरे की ज़ीनत इन से
और अब थक गईं आँखें मेरी
देखते देखते सूरत इन की
ये महकते हैं, न कुम्हलाते हैं
दिन इन्हें छू के निकल जाते हैं
काश मौसम की अमल-दारी में
ये भी पाबंद-ए-तग़य्युर होते
जब ये खिलते तो कोई चुन चुन कर
गूँधता इन की लड़ी जूड़े में
और जब उन पे ख़िज़ाँ आ जाती
फेंक देता मैं इन्हें कूड़े में
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