ख़ान-ए-मतरूक
दरवाज़े के शीशों से लगी हैं आँखें
हर गोशे में माज़ी की कमीं-गाहें हैं
यादें हैं कि बिखरे हों खिलौने जैसे
कुछ आहटें कुछ क़हक़हे कुछ आहें हैं
जो लोग यहाँ रहते थे उन के साए
चुप-चाप फिरा करते हैं उन कमरों में
खोई हुई आवाज़ गए वक़्तों की
गूँज उठती है मानिंद-ए-अज़ाँ कानों में
मैं आया हूँ अपने यहाँ मेहमाँ बन कर
कुछ रोज़ गुज़ारूँगा चला जाऊँगा
मिट जाएगा ग़म दूरी का धीरे धीरे
क्या जानिए फिर लौट के कब आऊँगा
हर संग है इक संग-ए-मलामत गोया
हर कतबा-ए-दीवार है दुश्नाम मुझे
पैमान-ए-वफ़ा बाँधा था मैं ने उन से
अब तकते हैं हैरत से दर-ओ-बाम मुझे
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