बाज़-दीद
तुम जो आओ तो धुँदलके में लपट कर आओ
फिर वही कैफ़ सर-ए-शाम लिए
जब लरज़ते हैं सदाओं के सिमटते साए
और आँखें ख़लिश-ए-हसरत-ए-नाकाम लिए
हर गुज़रते हुए लम्हे को तका करती हैं
ख़ुद-फ़रेबी से हम-आग़ोश रहा करती हैं
तुम जो आओ तो अँधेरे में लपट कर आओ
शबनमी शीशों को सहलाएँ लचकती शाख़ें
और महताब-ए-ज़मिस्ताँ कोई पैग़ाम लिए
यूँ चला आए कि दर बाज़ न हो
कोई आवाज़ न हो
तुम जो आओ तो उजाले में लपट कर आओ
फिर वही लज़्ज़त-ए-अंजाम लिए
जब तमन्नाएँ किसी ख़ौफ़ से चीख़ उठती हैं
और ख़ामोशी-ए-लब सैकड़ों इबहाम लिए
एक संगीन हक़ीक़त में बदल जाती है
ज़िंदगी दर्द में ढल जाती है
(330) Peoples Rate This