अजंता
चटानें बोल सकती हैं
चटानें राज़ अपने खोल सकती हैं
दिखा सकती हैं ये तक़्दीस की दुनिया-ए-ना-पैदा
जहाँ पर फ़िक्र-ओ-फ़न उज़्लत-नशीं की ख़ान-क़ाहें हैं
जहाँ एहसास की अंधी गुफाएँ हैं
वो किस की उँगलियाँ थीं जिन के लम्स-ए-सेहर-आगीं ने
उन्हें इज़्न-ए-सुख़न बख़्शा
वो किस की गर्मी-ए-दिल थी कि जिस ने उन को तन बख़्शा
यहाँ हर शख़्स आएगा
मगर उस को न पाएगा
उसे ढूँडो वो शायद उन चटानों में छुपा होगा
ये पहली शर्त थी उन के तकल्लुम की
कि जो भी उन के असरार-ए-मुक़फ़्फ़ल ढूँडने आए
वो ख़ुद उन में समा जाए
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