आते हैं जैसे जैसे बिछड़ने के दिन क़रीब
लगता है जैसे रेल से कटने लगा हूँ मैं
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दौलत से मोहब्बत तो नहीं थी मुझे लेकिन
अना हवस की दुकानों में आ के बैठ गई
जुदा रहता हूँ मैं तुझ से तो दिल बे-ताब रहता है
घर में रहते हुए ग़ैरों की तरह होती हैं
भिकारी
गर कभी रोना ही पड़ जाए तो इतना रोना
मैं इस से पहले कि बिखरूँ इधर उधर हो जाऊँ
अड़े कबूतर उड़े ख़याल
ये दरवेशों की बस्ती है यहाँ ऐसा नहीं होगा
मुझ को गहराई में मिट्टी की उतर जाना है
किसी के ज़ख़्म पर चाहत से पट्टी कौन बाँधेगा