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जाम लेते हैं न पीने को सुबू लेते हैं - मुनव्वर लखनवी कविता - Darsaal

जाम लेते हैं न पीने को सुबू लेते हैं

जाम लेते हैं न पीने को सुबू लेते हैं

हम मगर सरहद-ए-इदराक को छू लेते हैं

मय मयस्सर जो नहीं प्यास बुझाने के लिए

हम तो चलो मैं अब अपना ही लहू लेते हैं

मेरी बेगाना-रवी मुझ को बचा लेती है

इंतिक़ाम अपनी तरफ़ से तो अदू लेते हैं

तोड़ देते हैं उसे किस लिए फिर अहल-ए-जुनूँ

माँग कर ख़ुद ही तो ज़ंजीर-ए-गुलू लेते हैं

सिर्फ़ आँखों की तसल्ली के लिए है ये सैर

रंग लेते हैं न हम फूल से बू लेते हैं

टूट जाए न किसी ज़ख़्म का टाँका ऐ दोस्त

काम हम ज़ब्त से हंगाम-ए-रफ़ू लेते हैं

किया 'मुनव्वर' अभी बालीदगी-ए-शौक़ का ज़िक्र

किस क़दर वक़्त शजर बहर-ए-नुमू लेते हैं

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