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जहाँ बचपन गुज़ारा था वो घर पहचानते हैं - मुनव्वर हाशमी कविता - Darsaal

जहाँ बचपन गुज़ारा था वो घर पहचानते हैं

जहाँ बचपन गुज़ारा था वो घर पहचानते हैं

अभी हम शहर की हर रहगुज़र पहचानते हैं

परिंदे जिस तरफ़ जाएँ पलट आते हैं शब को

वो अपना आशियाँ अपना शजर पहचानते हैं

अभी गलियाँ नहीं भूलें मिरे क़दमों की आहट

मुझे इस शहर के दर-ओ-दीवार पहचानते हैं

कभी मेरे हवाले से रही पहचान जिन की

मुझे वो पास आ कर सोच कर पहचानते हैं

नहीं पहचानते कुछ लोग दुनिया में तो क्या है

मिरे फ़न को सभी अहल-ए-नज़र पहचानते हैं

जो आँखें रौज़नों से झाँकती थीं अब नहीं हैं

घरों के बंद दरवाज़े मगर पहचानते हैं

'मुनव्वर' हम ने यूँ इस शहर की चीज़ों को देखा

मुसाफ़िर जैसे सामान-ए-सफ़र पहचानते हैं

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In Hindi By Famous Poet Munawwar Hashmi. is written by Munawwar Hashmi. Complete Poem in Hindi by Munawwar Hashmi. Download free  Poem for Youth in PDF.  is a Poem on Inspiration for young students. Share  with your friends on Twitter, Whatsapp and Facebook.