मेले में गर नज़र न आता रूप किसी मतवाली का
फीका फीका रह जाता त्यौहार भी इस दीवाली का
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फ़सील-ए-दिल में दर किया कि राब्ता बना रहे
हुस्न फ़ानी है जवानी के फ़साने तक है
ये और बात शजर सर-निगूँ पड़ा हुआ था
उस की आँखों पे मान था ही नहीं
अपनी हर बात ज़माने से छुपानी पड़ी थी
नींदों को जब ख़्वाब में जूता जाता था
गुल-बदन ख़ाक-नशीनों से परे हट जाएँ
मैं कम-सिनी के सभी खिलौनों में यूँ बिखरता जवाँ हुआ था
हम कहाँ अज़्मत अस्लाफ़ सँभाले हुए हैं
क़लम की नोक पे रक्खूँगा इस जहान को मैं