मुझे शक्ल दे के तमाम कर कफ़-ए-कूज़ा-गर
मुझे शक्ल दे के तमाम कर कफ़-ए-कूज़ा-गर
कभी कू-ब-कू मुझे आम कर कफ़-ए-कूज़ा-गर
किसी सुब्ह मुझ को वजूद दे मिरे रू-ब-रू
किसी शाम मुझ से कलाम कर कफ़-ए-कूज़ा-गर
मुझे आँच दे किसी दोपहर के फ़राग़ में
किसी रात मुझ में क़याम कर कफ़-ए-कूज़ा-गर
मुझे छू के लम्स-शनास कर किसी सह-पहर
मिरी रूह तक में ख़िराम कर कफ़-ए-कूज़ा-गर
कभी पूरा दिन इसी ख़ाक पर मिरे साथ रह
इसी कुंज में कोई शाम कर कफ़-ए-कूज़ा-गर
कभी शब ढले कोई शक्ल मेरी ख़बर को दे
ग़म-ए-बे-जहत को मक़ाम कर कफ़-ए-कूज़ा-गर
मैं जो एक ज़र्रा-ए-रेग हूँ तह-ए-रेग हूँ
कभी मुझ को महर-ए-तमाम कर कफ़-ए-कूज़ा-गर
मुझे दाएरों के हुजूम में कहीं भेज दे
मिरी वुसअतों को दवाम कर कफ़-ए-कूज़ा-गर
कभी ले के आ मिरी ख़ाक नील-ओ-फ़ुरात से
कोई वाक़िआ मिरे नाम कर कफ़-ए-कूज़ा-गर
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