तलाश-ए-सूरत-ए-तस्कीं न कर औहाम-हस्ती में
दिल-ए-महज़ूँ बहल सकता नहीं इस नक़्श-ए-बातिल से
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जिस ने जी भर के तजल्ली को कभी देखा हो
जुनून-ए-इश्क़ की ये फ़ित्ना-सामानी नहीं जाती
दिल-ए-ना-सुबूर को फिर वही बुत-ए-बेवफ़ा की तलाश है
कहाँ रह जाए थक कर रह-नवर्द-ए-ग़म ख़ुदा जाने
मिरी ज़िंदगी का ये हाल था यही शक्ल-ए-राह-रवी रही
गुबार-ए-ज़िंदगी में लैला-ए-मक़्सूद क्या मअ'नी
ग़म-ओ-कर्ब-ओ-अलम से दूर अपनी ज़िंदगी क्यूँ हो
जो मेरी हालत पे हंस रहे हैं मुझे कुछ उन से गिला नहीं है
नज़्र-ए-तौबा हम करेंगे मय-परस्ती एक दिन
ग़म न अपना न अब ख़ुशी अपनी
उसी को हम समझ लेते हैं अपना सादगी देखो