इबरत-आबाद भी दिल होते हैं इंसानों के
दाद मिलती भी नहीं ख़ूँ-शुदा अरमानों की
Jaun Eliya
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Rahat Indori
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मैं तो हर धूप में सायों का रहा हूँ जूया
रात के बाद वो सुब्ह कहाँ है दिन के बाद वो शाम कहाँ
रात की बात
नूर-ए-सहर कहाँ है अगर शाम-ए-ग़म गई
क्या क्या पुकारें सिसकती देखीं लफ़्ज़ों के ज़िंदानों में
तिरे जल्वे तेरे हिजाब को मेरी हैरतों से नुमू मिली
क़र्या-ए-वीराँ
मेरी आँखों ही में थे अन-कहे पहलू उस के
जिन ख़यालों के उलट फेर में उलझीं साँसें
आख़िर दिल की पुरानी लगन कर के ही रहेगी फ़क़ीर हमें
शोख़ थे रंग हर इक दौर में अफ़्सानों के