सुख़न सुख़न जो किसी कर्ब से इबारत था
सुख़न सुख़न जो किसी कर्ब से इबारत था
मैं लफ़्ज़ लफ़्ज़ ख़ुद अपनी ही तो हिकायत था
ख़याल-ए-वहम की सूरत भी क्या हक़ीक़त था
वो दूर दूर था तो कितना ख़ूबसूरत था
हर इक ब-नाम-ए-मोहब्बत ख़ुलूस की ख़ातिर
हर एक दूसरे के वास्ते मुसीबत था
वजूद-ए-लफ़्ज़-ओ-मआ'नी सुकून-ए-जाँ कहिए
ख़ुद अपनी ज़ात में हर हर्फ़ इक अज़िय्यत था
लपकते शो'लों में जलते रहे ख़ुतूत मगर
इक एक हर्फ़ पुकारा है मैं मोहब्बत था
उसे दराज़ी-ए-क़द पर बहुत ग़ुरूर हुआ
सुना है उस में भी पहलू हुसूल-ए-शोहरत था
हज़ार उस से ख़फ़ा हों बुरा कहें लेकिन
'शमीम' शख़्स था क्या ख़ूब दम ग़नीमत था
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