मैं ज़िंदगी के हज़ारों अज़ाब झेल गया
मैं ज़िंदगी के हज़ारों अज़ाब झेल गया
अज़ाब क्या हैं मैं कितने ही ख़्वाब झेल गया
ये प्यास धूप सफ़र दश्त और मैं तन्हा
ग़नीम वक़्त का इक इक हिसाब झेल गया
मैं अपने आप से मिल कर बहुत पशेमाँ हूँ
बिछड़ते रहने का पैहम अज़ाब झेल गया
उफ़ुक़ उफ़ुक़ वो मगर मेहर-ओ-मह उछाले है
मैं ज़ख़्म ज़ख़्म कई आफ़्ताब झेल गया
वो इक सदा थी कि सदियों की गूँज थी मुझ में
उस एक लम्हे में क्या इंक़लाब झेल गया
उखड़ ही जाएगा अब साइबान-ए-रोज़-ओ-शब
'शमीम' बोझ तो ज़ोर-ए-तनाब झेल गया
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