तीर ओ कमान, ख़ंजर ओ तलवार बन गए
तीर ओ कमान, ख़ंजर ओ तलवार बन गए
दुश्मन मिला तो हाथ भी हथियार बन गए
लफ़्ज़ों के कैसे कैसे मआनी बदल गए
किर्दार-कुश भी साहब-ए-किरदार बन गए
जब से कोई उसूल-ए-तिजारत नहीं रहा
बाज़ारियों के नाम पे बाज़ार बन गए
क़दग़न के बावजूद कहाँ आ गया हूँ मैं
दरवाज़े मेरे सामने दीवार बन गए
उस की ज़बाँ पे हर्फ़ थे उनवान की तरह
अफ़्साने सैकड़ों पस-ए-इज़हार बन गए
इस क़ाफ़िले में गर्द बराबर थी जिन की ज़ात
वापस हुए तो क़ाफ़िला-सालार बन गए
ख़त खींचते हुए कोई बच्चा बड़ा हुआ
कल के ख़ुतूत आज के शाहकार बन गए
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