सूरज की सुनहरी किरनों से ताबिंदा रुख़-ए-आलम न सही
सूरज की सुनहरी किरनों से ताबिंदा रुख़-ए-आलम न सही
आसार-ए-सहर तो पैदा हैं कम ज़ुल्मत-ए-शाम-ए-ग़म न सही
आदाब-ए-चमन से ना-वाक़िफ़ ज़ंजीर बपा दीवानों को
ता'मीर-ए-चमन की फ़िक्र तो है तख़रीब-ए-चमन का ग़म न सही
हाँ याद हमें भी कर लेना आसाइश-ए-मंज़िल से पहले
ऐ क़ाफ़िले वालो ग़म न करो ऐ मंज़िल-ए-जानाँ हम न सही
अंजाम-ए-सफ़र क्या होना है ये फ़ैसला मुस्तक़बिल देगा
मैदानों पे वहशत आज भी है राहों के वो पेच-ओ-ख़म न सही
मायूस 'मुजीब' इतना भी न हो लग़्ज़िश तो गुनाह-ए-आदम है
मंज़िल की तलब तो मोहकम है इदराक-ए-सफ़र मोहकम न सही
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