दावे बुलंदियों के करें किस ज़बाँ से हम
दावे बुलंदियों के करें किस ज़बाँ से हम
ख़ुद आ गए ज़मीन पे जब आसमाँ से हम
हम को भी मस्लहत ने सियासी बना दिया
पहले कहाँ मुकरते थे अपनी ज़बाँ से हम
दोनों क़दम बढ़ाएँ मिटाने को नफ़रतें
आग़ाज़ तुम वहाँ से करो और यहाँ से हम
रस्ते की हर निगाह तुझे पूछती मिली
गुज़रे तिरे बग़ैर जिधर से जहाँ से हम
हम धूप के बजाए घनी छाँव से जले
था ख़ौफ़ रहज़नों का लुटे पासबाँ से हम
पढ़ना जिसे फ़ुज़ूल समझती है नस्ल-ए-नौ
मशहूर हो गए इसी उर्दू ज़बाँ से हम
तब दुश्मनों के बाब में सोचें 'फ़राज़' हम
फ़ुर्सत ज़रा जो पाएँ ग़म-ए-दोस्ताँ से हम
(427) Peoples Rate This