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शोला-ए-शौक़ की आग़ोश में क्यूँकर आऊँ - मुहिब आरफ़ी कविता - Darsaal

शोला-ए-शौक़ की आग़ोश में क्यूँकर आऊँ

शोला-ए-शौक़ की आग़ोश में क्यूँकर आऊँ

इक तमन्ना हूँ कि मिट जाऊँ अगर बर आऊँ

एक दावत हूँ अगर उन के लबों पर खेलूँ

एक हसरत हूँ अगर ख़ुद को मयस्सर आऊँ

हर तरफ़ से मुझे क्या घूर रही हैं आँखें

ख़्वाब हूँ दीदा-ए-बेदार में क्यूँकर आऊँ

एक आलम हूँ जिसे बस कोई महसूस करे

कोई मअ'नी हूँ कि अल्फ़ाज़ के अंदर आऊँ

नक़्श-बर-आब सही कुछ भी सही हूँ तो सही

रेत की क़ैद में क्या ख़ुद से बिछड़ कर आऊँ

मेरी पहचान हो शायद इन्हीं ज़र्रों की चमक

अपने घर में इसी ज़ीने से उतर कर आऊँ

मेरी आयात पे ईमान न लाने वालो

ताब लाओगे अगर जिल्द से बाहर आऊँ

फूँक डालीं मिरे शोले ने फ़ज़ाएँ सारी

इसी धुन में कि नज़र अपने बराबर आऊँ

ले चुका आब-ए-बक़ा तुझ से अब ऐ बहर-ए-अरब

उड़ के जाता हूँ कि ये क़र्ज़ अदा कर आऊँ

अपने दामन में कहो आग सँभालूँ क्यूँकर

हाथ अपने तो 'मुहिब' ख़ैर से अक्सर आऊँ

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In Hindi By Famous Poet Muhib Aarfi. is written by Muhib Aarfi. Complete Poem in Hindi by Muhib Aarfi. Download free  Poem for Youth in PDF.  is a Poem on Inspiration for young students. Share  with your friends on Twitter, Whatsapp and Facebook.