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महरूमियों का इक सबब जोश-ए-तलब ख़ुद भी तो है - मुहिब आरफ़ी कविता - Darsaal

महरूमियों का इक सबब जोश-ए-तलब ख़ुद भी तो है

महरूमियों का इक सबब जोश-ए-तलब ख़ुद भी तो है

शो'ले पे लपका इस तरह जैसे कोई गुल ही तो है

किस वहम किस चक्कर में हो ख़ुद-बीं बगूलों दम तो लो

सीने में दिल हो भी कहीं माना कि बेताबी तो है

सूझे मगर क्या शम्अ को अपने उजाले के सिवा

हर चंद ज़ौक़-ए-दीद का मैदान तारीकी तो है

झाँका है मैं ने साज़ में पर्दा हटा कर साज़ का

नग़्मा नज़र आ जाएगा ये आस बेजा भी तो है

हर बाग़ में उड़ता फिरूँ हर शाख़ पर गिरता रहूँ

हर गुल से ख़ुशबू चूस लूँ अब ये मेरी ज़िद ही तो है

है है वो शीरीं झलकियाँ कब तक मगर सर फोड़िए

दीवार फिर दीवार है हालाँकि शीशे की तो है

फिर भी ये धुन है मौज से दरिया को अपने नाप लूँ

पैमाना मेरा है ग़लत मुझ को ख़बर इतनी तो है

पीता रहा क्या उम्र भर पी कर तमन्ना का लहू

कुछ दिन से मेरी आस्तीं कुछ ज़ेर-ए-लब कहती तो है

होती कहाँ तक मुस्तरद बे-बाकी-ए-दस्त-ए-सबा

खुलने लगा बंद-ए-हया आख़िर शगूफ़ा ही तो है

ता'मीर आख़िर कर लिया हसरत ने ख़्वाबों का हरम

शग़्ल-ए-गुनह के वास्ते ये आड़ भी काफ़ी तो है

मश्क़-ए-ख़ुद-आशामी करूँ सैराब होना सीख लूँ

लबरेज़ ख़ुद है तिश्नगी साग़र मिरा ख़ाली तो है

अब सुल्ह कर भी लें 'मुहिब' तन्हाइयों से वहशतें

वो मेरा साया ही सही इक शय नज़र आई तो है

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In Hindi By Famous Poet Muhib Aarfi. is written by Muhib Aarfi. Complete Poem in Hindi by Muhib Aarfi. Download free  Poem for Youth in PDF.  is a Poem on Inspiration for young students. Share  with your friends on Twitter, Whatsapp and Facebook.