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अपनी आग में भुनती जाए बुनती जाए कफ़न अपना - मुहिब आरफ़ी कविता - Darsaal

अपनी आग में भुनती जाए बुनती जाए कफ़न अपना

अपनी आग में भुनती जाए बुनती जाए कफ़न अपना

गोया इसी लिए छोड़ा है चिंगारी ने वतन अपना

झोंके कुछ बे-जान हवा के आते हैं अपने-आप चले

झूम उठते हैं चमन के पंखे उस को जान के फ़न अपना

ख़ुद-रौ सब्ज़े छेड़ रहे हैं जंगल के क़ानून के राग

कब तक बाग़ में पढ़वाएँगे ख़ुत्बा सर्व-ओ-समन अपना

दरिया-दिल है साहिल मेरा मगर यहाँ हर सैल-ए-बला

साइल है कि बढ़ा आता है फैलाए दामन अपना

मिल तो जाए अपने भँवर को दरिया के चक्कर से नजात

लेकिन आह अगर रह जाऊँ हो कर मैं हमा-तन अपना

शम्अ की लौ क्या शौक़-ए-बक़ा में शम्अ को चाटे जाती है

ख़ुद को तरसती रह जाती है रूह मिटा के बदन अपना

कोई 'मुहिब' आज़ुर्दा क्यूँ हो मेरी तल्ख़-कलामी से

अपनी ही जानिब रहता है अक्सर रू-ए-सुख़न अपना

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