वो नमाज़-ए-इश्क़ ही क्या जो सलाम तक न पहुँचे
वो नमाज़-ए-इश्क़ ही क्या जो सलाम तक न पहुँचे
कि क़ूऊद से जो गुज़रे तो क़याम तक न पहुँचे
वो हयात क्या कि जिस में न ख़ुशी के साथ ग़म हो
वो सहर भी क्या सहर है कि जो शाम तक न पहुँचे
तिरे मय-कदे का साक़ी ये चलन भी क्या चलन है
कि जो हाथ तिश्ना-कामों के भी जाम तक न पहुँचे
मरी ना-मुरादियों की यही इंतिहा है शायद
तिरी बारगाह-ए-आली में सलाम तक न पहुँचे
उसे अपनी बद-नसीबी न कहें तो फिर कहें क्या
कि हज़ार कोशिशों पर रह-ए-आम तक न पहुँचे
ये मुख़ासमत के जज़्बे ये महाज़ हासिदों के
मगर उम्र भर वो 'ज़ौक़ी' के मक़ाम तक न पहुँचे
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