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वो नमाज़-ए-इश्क़ ही क्या जो सलाम तक न पहुँचे - मुहम्मद अय्यूब ज़ौक़ी कविता - Darsaal

वो नमाज़-ए-इश्क़ ही क्या जो सलाम तक न पहुँचे

वो नमाज़-ए-इश्क़ ही क्या जो सलाम तक न पहुँचे

कि क़ूऊद से जो गुज़रे तो क़याम तक न पहुँचे

वो हयात क्या कि जिस में न ख़ुशी के साथ ग़म हो

वो सहर भी क्या सहर है कि जो शाम तक न पहुँचे

तिरे मय-कदे का साक़ी ये चलन भी क्या चलन है

कि जो हाथ तिश्ना-कामों के भी जाम तक न पहुँचे

मरी ना-मुरादियों की यही इंतिहा है शायद

तिरी बारगाह-ए-आली में सलाम तक न पहुँचे

उसे अपनी बद-नसीबी न कहें तो फिर कहें क्या

कि हज़ार कोशिशों पर रह-ए-आम तक न पहुँचे

ये मुख़ासमत के जज़्बे ये महाज़ हासिदों के

मगर उम्र भर वो 'ज़ौक़ी' के मक़ाम तक न पहुँचे

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