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निगाह-ए-फ़ितरत में दर-हक़ीक़त वो ज़िंदगी ज़िंदगी नहीं है - मुहम्मद अय्यूब ज़ौक़ी कविता - Darsaal

निगाह-ए-फ़ितरत में दर-हक़ीक़त वो ज़िंदगी ज़िंदगी नहीं है

निगाह-ए-फ़ितरत में दर-हक़ीक़त वो ज़िंदगी ज़िंदगी नहीं है

जो दूसरों के न काम आए वो आदमी आदमी नहीं है

किसी के जल्वों का अक्स-ए-रंगीं कभी है दिल में कभी नहीं है

मैं किस तरह मान लूँ कि ज़ौक़-ए-यक़ीं की तुझ में कमी नहीं है

फिर और क्या है अगर ज़वाल-ए-ख़ुदी-ओ-ख़ुद-आगही नहीं है

दिल-ओ-नज़र को ये क्या हुआ है कहीं भी आसूदगी नहीं है

ज़बाँ पे रिंदान-ए-कम-नज़र की शिकायत-ए-साक़ी-ए-अज़ल है

तलब सिवा हो जो ज़र्फ़ दिल से हवस है वो तिश्नगी नहीं है

जो क़ल्ब को ज़िंदगी न बख़्शे नज़र को कैफ़-ओ-ख़ुदी न बख़्शे

वो ज़ौक़-ए-सज्दा है नंग-ए-सज्दा इबादत-ओ-बंदगी नहीं है

हक़ीक़तों से गुरेज़ इंसाँ का एक एहसास-ए-कमतरी है

हयात बख़्शे जो ज़ुल्मतों को वो रौशनी रौशनी नहीं है

मिरा तसव्वुर है काएनाती शुऊ'र मेरा जमालियाती

मिरे ख़याल-ओ-नज़र में 'ज़ौक़ी' कोई बशर अजनबी नहीं है

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