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जुनूँ में मश्क़-ए-तसव्वुर बढ़ा रहा हूँ मैं - मुहम्मद अय्यूब ज़ौक़ी कविता - Darsaal

जुनूँ में मश्क़-ए-तसव्वुर बढ़ा रहा हूँ मैं

जुनूँ में मश्क़-ए-तसव्वुर बढ़ा रहा हूँ मैं

वो पास आए तो अब दूर जा रहा हूँ मैं

फ़ज़ा-ए-गुलशन-ए-हस्ती पे छा रहा हूँ मैं

तिरे करम का करिश्मा दिखा रहा हूँ मैं

वो चार तिनके जिन्हें बर्क़ भी जला न सके

इन्हीं से अपना नशेमन बना रहा हूँ मैं

है आदमी का मुक़द्दर ख़ुद उस के हाथों में

कुछ इस फ़रेब में भी मुब्तला रहा हूँ मैं

उभर रहे हैं फ़साने हक़ीक़तें बन कर

हक़ीक़तों को फ़साने बना रहा हूँ मैं

कुछ और क़िस्सा-ए-दार-ओ-रसन सुना वाइ'ज़

कि इस ख़याल से तस्कीन पा रहा हूँ मैं

वो इक नज़र कि जिसे जान-ए-मुद्दआ कहिए

उसी नज़र को तिरी ढूँढता रहा हूँ मैं

नहीं हूँ मस्लहत-अंदेश हक़-बयानी में

यही है जुर्म सज़ा जिस की पा रहा हूँ मैं

समझ चुका हूँ हक़ीक़त हयात-ए-फ़ानी की

वुफ़ूर-ए-ग़म में भी अब मुस्कुरा रहा हूँ मैं

कमाल-ए-फ़ैज़-ए-मोहब्बत नहीं तो फिर क्या है

कि ज़र्रे ज़र्रे में अब उन को पा रहा हूँ मैं

उन्हें ब-ईं ख़िरद-ओ-होश पा सका न कभी

मता-ए-होश-ओ-ख़िरद खो के पा रहा हूँ मैं

रह-ए-मजाज़-ओ-हक़ीक़त के मोड़ पर 'ज़ौक़ी'

खड़ा हुआ हूँ मगर लड़खड़ा रहा हूँ मैं

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