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इक इंक़लाब-ए-मुसलसल है ज़िंदगी मेरी - मुहम्मद अय्यूब ज़ौक़ी कविता - Darsaal

इक इंक़लाब-ए-मुसलसल है ज़िंदगी मेरी

इक इंक़लाब-ए-मुसलसल है ज़िंदगी मेरी

इक इज़्तिराब-ए-मुकम्मल है ख़ामुशी मेरी

ये किस मक़ाम पे पहुँची ख़ुद-आगही मेरी

कि आज आप ने महसूस की कमी मेरी

मिज़ाज-ए-हुस्न को भाई न बंदगी मेरी

नियाज़-ए-इश्क़ में शामिल रही ख़ुदी मेरी

मुहीत-ए-कौन-ओ-मकाँ है जमाल-ए-पर्दा-नशीं

वो सामने थे जहाँ तक नज़र गई मेरी

हदीस-ए-दिल ब-ज़बान-ए-नज़र भी कह न सका

हुज़ूर-ए-हुस्न बढ़ी और बेबसी मेरी

गुलों का ज़िक्र ही क्या गुल तो ख़ैर गुल ही हैं

चमन के ख़ार उड़ाते हैं अब हँसी मेरी

पिला पिला के निगाहों से बादा-ए-तस्कीं

बढ़ा रहा है कोई और तिश्नगी मेरी

रुला रुला के ज़माने ने इंतिक़ाम लिया

मुझे तो रास न आई कभी हँसी मेरी

तिरी निगाह ने क्या दे के शाद-काम किया

कि बे-नियाज़-ए-तमन्ना है ज़िंदगी मेरी

रुलाएगी मिरी याद उन को मुद्दतों 'ज़ौक़ी'

करेंगे बज़्म में महसूस जब कमी मेरी

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