इक इंक़लाब-ए-मुसलसल है ज़िंदगी मेरी
इक इंक़लाब-ए-मुसलसल है ज़िंदगी मेरी
इक इज़्तिराब-ए-मुकम्मल है ख़ामुशी मेरी
ये किस मक़ाम पे पहुँची ख़ुद-आगही मेरी
कि आज आप ने महसूस की कमी मेरी
मिज़ाज-ए-हुस्न को भाई न बंदगी मेरी
नियाज़-ए-इश्क़ में शामिल रही ख़ुदी मेरी
मुहीत-ए-कौन-ओ-मकाँ है जमाल-ए-पर्दा-नशीं
वो सामने थे जहाँ तक नज़र गई मेरी
हदीस-ए-दिल ब-ज़बान-ए-नज़र भी कह न सका
हुज़ूर-ए-हुस्न बढ़ी और बेबसी मेरी
गुलों का ज़िक्र ही क्या गुल तो ख़ैर गुल ही हैं
चमन के ख़ार उड़ाते हैं अब हँसी मेरी
पिला पिला के निगाहों से बादा-ए-तस्कीं
बढ़ा रहा है कोई और तिश्नगी मेरी
रुला रुला के ज़माने ने इंतिक़ाम लिया
मुझे तो रास न आई कभी हँसी मेरी
तिरी निगाह ने क्या दे के शाद-काम किया
कि बे-नियाज़-ए-तमन्ना है ज़िंदगी मेरी
रुलाएगी मिरी याद उन को मुद्दतों 'ज़ौक़ी'
करेंगे बज़्म में महसूस जब कमी मेरी
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