बे-निशाँ
बात यूँ ख़त्म हुई
दर्द यूँ गया जैसे कि साहिल ही न था
सारे अल्ताफ़-ओ-करम भूल गए
जौर-फ़रामोश हुए
रात यूँ बीत गई जैसे कि निकला ही न था
मतला-ए-शौक़ पे वो माह-ए-तमाम
अश्क यूँ सूख गए जैसे कि दामन मेरा
उस का आँचल था
वो पैमाना-ए-नाज़
जाने गर्दिश में है कि टूट गया
मैं ज़माने के किनारे यूँ खड़ा हूँ तन्हा
जैसे एक जस्त लगा ही दूँगा
और कल बाद-ए-सहर
यूँ मिटा देगी हर इक नक़्श-ए-क़दम
जैसे इस राह से पहले कोई गुज़रा ही न था
(571) Peoples Rate This