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बे-निशाँ - मुग़नी तबस्सुम कविता - Darsaal

बे-निशाँ

बात यूँ ख़त्म हुई

दर्द यूँ गया जैसे कि साहिल ही न था

सारे अल्ताफ़-ओ-करम भूल गए

जौर-फ़रामोश हुए

रात यूँ बीत गई जैसे कि निकला ही न था

मतला-ए-शौक़ पे वो माह-ए-तमाम

अश्क यूँ सूख गए जैसे कि दामन मेरा

उस का आँचल था

वो पैमाना-ए-नाज़

जाने गर्दिश में है कि टूट गया

मैं ज़माने के किनारे यूँ खड़ा हूँ तन्हा

जैसे एक जस्त लगा ही दूँगा

और कल बाद-ए-सहर

यूँ मिटा देगी हर इक नक़्श-ए-क़दम

जैसे इस राह से पहले कोई गुज़रा ही न था

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