कटती किसी तरह से नहीं ये शब-ए-फ़िराक़
शायद कि गर्दिश आज तुझे आसमाँ नहीं
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फ़लक ने भी सीखे हैं तेरे ही तौर
'आज़ुर्दा' मर के कूचा-ए-जानाँ में रह गया
काश मक़्बूल हो दुआ-ए-अदू
नालों से मेरे कब तह-ओ-बाला जहाँ नहीं
ऐ दिल तमाम नफ़अ' है सौदा-ए-इश्क़ में
निकलना हो दिल से दुश्वार क्यूँ
इस दर्द-ए-जुदाई से कहीं जान निकल जाए
ये कह के रख़्ना डालिए उन के हिजाब में
मैं और ज़ौक़-ए-बादा-कशी ले गईं मुझे
क्या जानो जो असर है दम-ए-शो'ला-ताब में
नासेह यहाँ ये फ़िक्र है सीना भी चाक हो