'आज़ुर्दा' मर के कूचा-ए-जानाँ में रह गया
दी थी दुआ किसी ने कि जन्नत में घर मिले
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फ़लक ने भी सीखे हैं तेरे ही तौर
कटती किसी तरह से नहीं ये शब-ए-फ़िराक़
अगर हम न थे ग़म उठाने के क़ाबिल
नासेह यहाँ ये फ़िक्र है सीना भी चाक हो
निकलना हो दिल से दुश्वार क्यूँ
ऐ दिल तमाम नफ़अ है सौदा-ए-इश्क़ में
नालों से मेरे कब तह-ओ-बाला जहाँ नहीं
मैं और ज़ौक़-ए-बादा-कशी ले गईं मुझे
ऐ दिल तमाम नफ़अ' है सौदा-ए-इश्क़ में
इक बात पर बिगड़े गए न जो उम्र-भर मिले
क्या जानो जो असर है दम-ए-शो'ला-ताब में