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वो दिल हैराँ नहीं होते - मुबीन मिर्ज़ा कविता - Darsaal

वो दिल हैराँ नहीं होते

हवा और धूप का क़रनों पुराना साथ है

और ज़िंदगी मौज-ए-रवाँ है

वो किसी पल रुक नहीं सकती

न-जाने कितने बरसों की ये पुर-असरार तन्हाई

मिरे दिल में

खजूरों के दरख़्तों की तरह

यूँ ईस्तादा है

कि उजड़े क़र्तबा के सारे मंज़र

मेरी आँखों में लरज़ते हैं

न-जाने कितने बरसों की उदासी के

अंधेरे गुम्बदों में गूँजते

जाँ-सोज़ अंदेशे

मुसलसल मुझ पे यूरिश करते हैं

और उंदुलुस के कूचा-ओ-बाज़ार और बाग़ों को

फ़ौलादी सुमों से रौंदते

घोड़ों की टापों से

मिरा सीना धमकता है

मिरे एहसास की ये रंजिशें

और रूह के ये दुख किसी इक साअत-ए-सफ़्फ़ाक ने

मुझ को नहीं सौंपे

कि ये तो असल में वो जाल है

तारीख़ की मकड़ी जो सदियों से

मिरे अंदर कहीं

चुप-चाप बुनती है

हवा और धूप मेरी ज़िंदगी के मंज़रों में

बे-सबाती की अलामत हैं

ज़मीं की गर्दिशों से तेज़ है

हालात की गर्दिश

इसी ने मेरे सर में ख़ाक डाली है

यही तो मेरी आँखों में

पिघलती बर्फ़ की दीवार चुनती है

ये किस की बात सुनती है

मिरी साँसों में

ग़रनाता की धूल

उड़ती है

और ख़ामोश देहली की

हवाएँ सरसराती हैं

हूँ

हवा का रुख़ बदलने पर

वो दिल हैराँ नहीं होते

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