मोहब्बत रम्ज़-ए-हस्ती है
मोहब्बत ख़्वाब-ए-गुल है
शाख़-ए-दिल की सूनी पलकों पर
लरज़ता ख़्वाब-ए-गुल
जो नख़्ल-जाँ के ज़र्द-रू
गिरते हुए पत्तों की
साँसों में महकता है
मोहब्बत ज़िंदगी के सब्ज़ उफ़ुक़ पर
दूर तक फैली हुई ख़ुशबू की लौ है
जो कभी दिल के दरीचों में
उतर कर मुस्कुराती है
तो हर-सू रौशनी सी फैल जाती है
मोहब्बत रम्ज़-ए-हस्ती है
ये ऐसा भेद है जो कितने बरसों
बल्कि उम्रों की
मुसलसल बे-रिया काविश पे खुलता है
तो गोया यूँ मोहब्बत
ज़िंदगी का इस्तिआ'रा है
कि जिस का हर बयाँ अल्फ़ाज़ की छब
और लहजों का खनक से
मावरा हो कर भी
दुनिया-ए-माफ़ी अपनी ख़ामोशी में रखता है
मोहब्बत ख़्वाब-ए-गुल भी है
मोहब्बत रम्ज़-ए-हस्ती भी
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