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ये मोहब्बत है इसे गर्मी-ए-बाज़ार न कर - मुबीन मिर्ज़ा कविता - Darsaal

ये मोहब्बत है इसे गर्मी-ए-बाज़ार न कर

ये मोहब्बत है इसे गर्मी-ए-बाज़ार न कर

लाख वहशत सही ऐसा तो मिरे यार न कर

आज ये सोच कि कल कैसे सँभालेगा इसे

बे-सबब दिल में गुमानों का ये अम्बार न कर

ज़ीस्त हर आन तग़य्युर का निशाँ है लेकिन

यार कल तक जो रहे आज उन्हें अग़्यार न कर

इन बदलते हुए रंगों के तमाशे पे न जा

ये जो दुनिया है तो अपना इसे मेआ'र न कर

मसअला हल भी तो हो सकता है कुछ सोच के देख

यूँ बिगड़ कर मिरी हर बात से इंकार न कर

मैं तुझे रोक नहीं सकता मगर जाते हुए

ये जो इम्कान का दर है इसे दीवार न कर

दोस्ती ख़त्म हुई साफ़ बता दे मुझ को

कम से कम यूँ किसी दुश्मन की तरह वार न कर

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