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तिरा ग़म दिल पे इफ़्शा कर रहे हैं - मुबीन मिर्ज़ा कविता - Darsaal

तिरा ग़म दिल पे इफ़्शा कर रहे हैं

तिरा ग़म दिल पे इफ़्शा कर रहे हैं

सो दिल से कार-ए-दुनिया कर रहे हैं

तुझे अब क्या बताएँ हम तिरे बा'द

ब-नाम-ए-ज़ीस्त क्या क्या कर रहे हैं

हज़ारों रंज पै-दर-पै उठा कर

बस इक ग़म का मुदावा कर रहे हैं

कुछ ऐसा है ग़म-ए-तन्हाई दर-पेश

कि इक आलम को अपना कर रहे हैं

कभी जो काम चाहत से किए थे

उन्हीं का आज सदमा कर रहे हैं

ये ज़ख़्म-ए-दिल सलामत हम इसी को

मुक़द्दर का सितारा कर रहे हैं

किसी सूरत जो पूरी हो न पाए

हम इक ऐसी तमन्ना कर रहे हैं

जो करना चाहते थे बिल-इरादा

वो सब कुछ बे-इरादा कर रहे हैं

उन्ही लोगों को है दुनिया मयस्सर

कि जो उस से किनारा कर रहे हैं

वही करने की हसरत जाँ-गुसिल है

कि जो करने का चर्चा कर रहे हैं

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