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क़रीने ज़ीस्त में थे सोख़्ता-जानी से पहले - मुबीन मिर्ज़ा कविता - Darsaal

क़रीने ज़ीस्त में थे सोख़्ता-जानी से पहले

क़रीने ज़ीस्त में थे सोख़्ता-जानी से पहले

बहुत आबाद थे हम ख़ाना-वीरानी से पहले

बदलते मौसमों के साथ ग़म भी आए लेकिन

ग़मों की शान अलग थी इस फ़रावानी से पहले

इन्ही ख़ुश-ज़ौक़ लोगों में बहुत चर्चे रहे हैं

हमारी ख़ुश-लिबासी के भी उर्यानी से पहले

जो यार-ए-मेहरबाँ नालाँ है अब मेरी तलब से

उसे शिकवा था मेरी तंग-दामानी से पहले

बड़ा ज़ीरक बहुत दाना तुझे हम जानते थे

दिल-ए-नादाँ तिरी इस हश्र-सामानी से पहले

ये पर्दा है किसी शय का वगर्ना हम ने यारो

बड़े तूफ़ाँ उठाए हैं तन-आसानी से पहले

यहाँ इक बाग़ था जिस में चहकते थे परिंदे

यहीं इस क़र्या-ए-जाँ की बयाबानी से पहले

ये महजूबी ये ख़ामोशी हमेशा से नहीं है

लब-ए-गोया थे हम भी अपनी हैरानी से पहले

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