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मैं दिन भर पहले इस दुनिया की जौलानी में रहता हूँ - मुबीन मिर्ज़ा कविता - Darsaal

मैं दिन भर पहले इस दुनिया की जौलानी में रहता हूँ

मैं दिन भर पहले इस दुनिया की जौलानी में रहता हूँ

मगर फिर रात भर दिल की बयाबानी में रहता हूँ

यहाँ लोगों के दिल और चेहरे हर लहज़ा बदलते हैं

मुझे लगता है मैं इक दश्त-ए-इम्कानी में रहता हूँ

मुझे कुछ फ़िक्र-ए-फ़र्दा है न कोई हाल की उलझन

कि मैं तो गुज़रे वक़्तों की परेशानी में रहता हूँ

जो अब तक कर नहीं पाया ख़लिश जाँ-सोज़ है उस की

जो कर बैठा हूँ अब उस की पशेमानी में रहता हूँ

मुझे हर रोज़ ये दुनिया नई सूरत में मिलती है

मैं पैहम इस शनासाई की हैरानी में रहता हूँ

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